Sunday, October 17, 2010

हाय रे! दिनकर की पोथि ...


हाल के दिनों में मेरा झुकाव हिन्दी की तरफ बढ़ गया है | कारण तो स्पष्ट नहीं लेकिन जैसे की एक स्तंभ में, कल पढ़ रहा था - हिन्दी अपने अवसान में है ! आज कल देख कर मन पीडित हो जाता है इसकी दुर्दशा को |

 युवा पीढ़ी अपने आप को अँग्रेज़ी का चोला ओढ़ कर भले ही ' कूल ' दिखाए लेकिन इस तथ्य को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता की भारत की स्व-अभिव्यक्ति हिन्दी ही है | सिर्फ़ रेलवे स्टेशन्स पर और कुछ सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी की महत्ता पर लिखे चाँद वाक्यों से मन तो बहल जाता है लेकिन घाव नहीं भरता | १४ सितंबर को हिन्दी दिवस पर अँग्रेज़ी अख़बारों से नदारद और हिन्दी अख़बारों में छपी एक संपादकिए से ज़्यादा स्थान हमने इस महान भाषा को देने ही नहीं दिया |

मुद्दा अंग्रेज़ी विरोधी होने का कतई नहीं है, वरन हिन्दी को उसका स्थान दिलाने का है | इस स्थिति के लिए हम क्या कम ज़िम्मेवार हैं ?? टीवी पत्रकारिता हो या प्रिंट मिडिया,गिरता स्तर सूचक है इस प्रश्न का- आख़िर क्यों जा रही है हिन्दी गर्त में | कक्षा आठवीं तक विषय में शामिल तो कर दिया लेकिन इसे अनिवार्य बनाने की पहल आज तक हमारे पदासिन नेताओं ने नहीं किया | आख़िर करें भी तो क्या

दिनकर और नीरज के साथ सहित्य भी चौपट हो गया | जो कुछ गिने-चुने बच गये, उन्होनें भी पापी पेट के लिए इसका परित्याग कर अंग्रेज़ी को अपना लिया! अवशेषों में अगर कुछ युवक प्रेरित भी हुए तो,उन्हें अपने तथा-कथित 'गेंग' से बहिष्कृत होने का डर ने जकर लिया | समाज और सत्ता की लड़ाई में हम अपने मातृभाषा को भूल गये....क्या विडंबना है !! सरकार ने प्रोत्साहन के नाम पर कुछ छात्रवृतियाँ शुरू तो करती हैं लेकिन नियती के रंग तो देखिए,उन पर भी हक विदेशी जमा लेते हैं | आख़िर हो भी क्यों ना , बदले में मिलती है उन्हे दो वर्ष का वीसा और हिन्दी के पतन पर शोध करने का मौका | अब इस परिवेश में हम कितनी भी सफाई दे दें , ग़ौर फ़रमाने लाइक बात यह है की हमने इस भाषा का गला घोंट कर रख दिया है ||

मैं इस पक्ष में नहीं हूँ की इससे ज़बर्दस्ती कार्य-चलन की भाषा बनाकर आने वाले पीढ़ियों के लिए,भाषा विचार की अभिव्यक्ति ना हो कर जटिल समस्या बन जाए | ज़रूरत इस बात है की आम जनता समझे,हिन्दी सिर्फ़ अष्टम सूची की भाषा ही नहीं,हमारे विचारों की गंगा है और स्तिथि एक ऐसे मोर पर ना पहुँचे जहाँ दिनकर की पोथि और सांस्कृत्यन की गठरी सिर्फ़ धूल फाँक कर रह जाए !!


11 comments:

Lokesh said...

very very nice...
National language deserves a lot more...

Posydon said...

Hum aapke vicharoon se shat pratishat sehmat hain. Par bharat ke naujawan nagrik hone ke naate humara hi kartavya banta hai ki hum apni matrabhasha ko bachane ka prayatna karein.Is mudde ko ek bade star pe uthane ki sakht aawashaykta hai.

AMIT said...

This comes as one of the most touching of the articles that i have read for a long time..Until a nation's national language develops it can progress..Countries like China,Japan stand out simply because of the respect for their language..its high time that we do something( I know its a pity that me commenting in English on such a wonderful article on the importance of Hindi,sorry for it but its just that slowly Hindi is being lost somewhere)

hawk said...

मातृभाषा अपने माता-पिता से मिलनेवाला सबसे बढ़ी उपहार है, जिसका हमें एहसास नही है.
अमिताभ: अच्छा लेख है
फेरल: डूड :->

Sundeep Singh said...

बहूत खूब लिखें हैं सर जी!! आज हिन्दी की जो दशा है उसके लिए हम ही दोषी हैं | ज़्यादातर लोग सोचते हैं की हम अँग्रेज़ी का विरोध करके हिन्दी को बढ़ावा दे रहे हैं परंतु हमें हिन्दी का प्रचार करना पड़ेगा एवं यह सुनिश्चित करना होगा की लोग हिन्दी को अपनी मातृभाषा समझे एवं उसे उसका स्थान दिलायें|

Sundeep Singh said...

बहूत खूब लिखें हैं सर जी!! आज हिन्दी की जो दशा है उसके लिए हम ही दोषी हैं | ज़्यादातर लोग सोचते हैं की हम अँग्रेज़ी का विरोध करके हिन्दी को बढ़ावा दे रहे हैं परंतु हमें हिन्दी का प्रचार करना पड़ेगा एवं यह सुनिश्चित करना होगा की लोग हिन्दी को अपनी मातृभाषा समझे एवं उसे उसका स्थान दिलायें|

Unknown said...

Will look forward to read some action points in your next post to address this challenge !

Anand Shankar Mishra said...

हिंदी की व्यथा .. "अब मैं माँ कहाँ, मैं तो मौसी हो गयी हूँ | मौसी, जिस
से प्रेम उतना ही होता है की पर्व- त्यौहार पर याद कर ली जाती हूँ!"

Unknown said...

well said.......but there's definitely a way out of this.What we need to do is promote hindi literature n stuff.I mean guys like gajendra solanki n kumar vishwas are sweet hearts of many.The time has come 2 take the initiative and what better place than our own college....:-):-)

Totz said...
This comment has been removed by the author.
Totz said...

सर, मैं आपकी विचारों से सहमत हूँ। हिंदी के पतन में हमारी बदलती सोच का बहुत बार हाथ है। एक उदहारण- कक्षा ८ के बाद हिंदी और संस्कृत में से एक चुनने का मौका मिलता है और ज्यादातर लोग संस्कृत इस लिए लेते है क्योंकि संस्कृत में हिंदी की अपेक्षा ज्यादा अंक आते है। मैं मानता हूँ की इसमें मेरे साथ साथ गलती मेरे अभिभावकों की भी है क्योंकि उन्होंने मुझे हिंदी का महत्व बताया ही नहीं। सरकार की भी गलती है जिसने इंग्लिश को अनिवार्य विषय रखा और हिंदी को एच्क्षिक.