Saturday, August 22, 2009

पहचान

खड़ा था ,उस रात के धुंधलें में
अचानक एक आवाज़ आई
हे पथिक, निशा में कहाँ गुम हो रहे हो
उसने पूछा! कौन हो?

मैं खड़ा रहा कुछ क्षण,
सोच में डूबा रहा ,उसे क्या बताऊं
यह की में नहीं बता सकता,मैं एक आम आदमी था,
जो खुद को पहचानने में असमर्थ था!!

क्या विरलता है,सोचता रहा,
पर सोच न पाया .
मैं भी उस दौड़ती भीड़ की इच्छा था
मैं भी उस टूटते तारों में छुपा एक सपना था!

सोचा की भीड़ में अलग हूँ,
इन विचारों के द्वंद में आवाज़ गूँजी-
अंतर्द्वंदता में पहचान ही भूल गया
फिर ऐसा लगा की डूबती नैय्या को,जैसे कोई साहिल मिल गया .

सोचता रहा की इस भीड़ में,
कहीं मैं भी तो नहीं खो गया,
लेकिन अचानक एक सोच स्फुटित हुई
मैं तो उस भीड़ का नाविक था,
वह नाविक जो इस भटकी भीड़ को
लहरों से लड़कर गंतव्य तक ले जाएगा.

था में उस भीड़ की उपज-
लेकिन उसकी सोच थी अलग
ऐसी सोच जो अपने सपनों के परों पर
पूरी भीड़ की प्रामुख ही बदल देगा

उन सपनों और उचाईयों में भीड़
खुद को शख्सियत बना देगा.

अचानक पीछे मुड़ा, देखा –
वहाँ कोई निशाचर न दिखा-
आवाज़ आई-'कहाँ ढूँढ रहे हो,वो तो एक भीड़ की आवाज़ थी'.


1 comment:

Unknown said...

i lost my one presence in poem.......seems like i was the speaker.....truly extraordinary.